मैं अर्पिता डोंगरे अपने सफर की कहानी आपसे साझा कर रही हूं। मेरा जन्म अमरावती, महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव पुसला में हुआ। आर्थिक रूप से कमजोर एक दलित परिवार से ताल्लुक रखती हूँ। गांव में आजीविका के अभाव में परिवार को रोजगार के लिए भोपाल शहर में पलायन करना पड़ा, तब मेरे लिए रेल यात्रा किसी सपने के खुलने जैसी थी — जैसे कोई नई दुनिया मेरा इंतज़ार कर रही हो।
शहर की चमक-दमक में कदम रखते ही डर भी था और उम्मीद भी। अंबेडकर नगर बस्ती में हमने किराए का एक छोटा कमरा लिया — चार लोग, एक चूल्हा, और एक सपना। बरसात में टिन की छत से गिरती बूँदें मेरी किताबों पर पड़ती थीं, और मैं उन्हें बचाते हुए सोचती थी — “परिस्थितियाँ भले टपकें, पर मेरे सपनों को नहीं भिगो पाएँगी।”
शिक्षा – संघर्ष का दूसरा नाम
मेरी मेहनत रंग लाई — बारहवीं में मेधावी छात्रा के रूप में चयन हुआ और मैंने Institute for Excellence in Higher Education, Bhopal में दाख़िला लिया। यहाँ मैं राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS) से जुड़ी, ईश्वर नगर बस्ती में बच्चों को पढ़ाया, और धीरे-धीरे समझा कि असली शिक्षा किताबों से नहीं, समाज से मिलती है।
सामाजिक कामों से जुड़ते हुए आत्मविश्वास बढ़ा। मैंने आवाज़ संस्था के साथ मिलकर मतदान जागरूकता के लिए फ्लैश-मॉब किया और फिर छात्र बस किराया वृद्धि के खिलाफ़ छात्रों का नेतृत्व किया। उस आंदोलन के बाद जब मेरा नाम अख़बार में छपा, तो वह पल मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं था — जैसे मेरे भीतर छिपी नेता पहली बार दुनिया के सामने आई हो।
कोविड: संवेदना और नेतृत्व की असली परीक्षा
महामारी ने मेरी सोच को एक नया आयाम दिया। मैंने राशन वितरण, बाल सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता अभियानों में सक्रिय भूमिका निभाई। बस्ती की गलियों में दीवारों पर संदेश लिखते, बच्चों के लिए प्रतियोगिताएँ करवाते हुए समझा — नेतृत्व का असली अर्थ दूसरों की तकलीफ़ को महसूस करना है।
इन प्रयासों के लिए मुझे “कोरोना योद्धा पुरस्कार” मिला। पर असली इनाम था — लोगों की आँखों में भरोसा और अपने काम का असर।
मुंबई: आत्मनिर्णय की शुरुआत
स्नातक के बाद घर में शादी का दबाव बढ़ा, लेकिन मैंने खुद से कहा —
“मैं अपनी ज़िन्दगी की दिशा खुद तय करूँगी।”
इसी हिम्मत ने मुझे The Gender Lab Fellowship, Mumbai तक पहुँचाया। वहाँ समुदायों के साथ काम करते हुए मैंने देखा कि बदलाव केवल विचारों से नहीं, बल्कि छोटे-छोटे कदमों से आता है। यही वह मोड़ था, जहाँ मैंने खुद को एक फेमिनिस्ट इन एक्शन के रूप में पहचाना। फिर आयुषी ने मुझे FLL में फॉर्म भरने के लिए प्रोत्साहित किया।
UN Women – Feminist Leadership Lab: समावेशिता के वादे और हकीकत के बीच
जब मुझे Feminist Leadership Lab (FLL) में चुने जाने की खबर मिली, तब मुझे बेहद खुशी हुई। मुझे लगा कि यह वह जगह होगी जहाँ मेरे जैसे युवाओं को सच में सुना जाएगा — जहाँ मैं अपनी पहचान, अपने अनुभव और अपने समुदाय की आवाज़ रख पाऊँगी। एक दलित, ग्रामीण पृष्ठभूमि की लड़की के रूप में, मैंने अक्सर देखा है कि बड़े “फेमिनिस्ट” स्पेस में हमारे अनुभवों को या तो नज़रअंदाज़ किया जाता है या “representation” के नाम पर केवल दिखाया जाता है। इसलिए FLL से मुझे उम्मीद थी कि यहाँ बराबरी के स्तर पर सीखने, समझने और साथ बढ़ने का मौका मिलेगा।
परिचय सत्र में मैंने कहा, “मैं एक दलित युवती हूँ, छोटे गाँव से आई हूँ, और यह मेरे लिए बहुत बड़ा अवसर है।” कमरे में सन्नाटा छा गया। “मेरे मन में उथल-पुथल होने लगी थी कि मैं यहां उम्र में छोटी हूं, अनुभव में भी कम हूं और ठीक से इंग्लिश भी नहीं आती हैं। क्या सभी मुझे सुनेंगे? क्या सभी कोहर्ट में मुझे जगह देंगे?”
लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए, मैंने महसूस किया कि समावेशिता की बातें करना और उसे जीना — दोनों बहुत अलग बातें हैं। लैब में विविधता तो थी — अलग-अलग भाषा, जाति, वर्ग, और जेंडर पहचान वाले लोग थे — पर कई बार यह विविधता ‘सुविधा’ के दायरे में सीमित रह गई। जिनके पास भाषा, क्लास या नेटवर्क की शक्ति थी, उनकी आवाज़ें ज़्यादा सुनी जाती थीं। बाकी लोग, जिनके पास यह “सुविधा” नहीं थी, धीरे-धीरे चुप होते चले गए।
पहली चुनौती – भाषा और आत्मविश्वास -:
शुरुआत में सारी बातचीत अंग्रेज़ी में होती थी। मैं समझती थी पर बोल नहीं पाती थी — जैसे शब्द गले में अटक जाते हों। धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि भाषा दीवार नहीं, बल्कि पुल बन सकती है — अगर हम उसे अपनी तरह से अपनाएँ। मैंने अपनी सहज भाषा में बोलना शुरू किया, और वह मेरे लिए आत्म-स्वीकृति का पहला क्षण था। यह एक छोटा कदम था, पर उसने भीतर बहुत कुछ बदल दिया।
दूसरी चुनौती – सुरक्षित और समावेशी स्थान की कमी -:
लैब में चर्चाओं के दौरान मैंने एक बार कहा था, “हमें ऐसा safe space चाहिए जहाँ कोई भी अपनी बात कह सके, बिना किसी जजमेंट के।”
पर समय के साथ समझ आया कि “safe space” का मतलब सबके लिए एक जैसा नहीं होता। कुछ साथी बहुत सहज थे, जबकि कुछ लगातार असहज महसूस करते रहे। मैंने खुद से सवाल किया — क्या यह लैब सच में inclusive है?
मैं किसी को दोष नहीं देती, लेकिन यह ज़रूर महसूस हुआ कि सिस्टम और स्ट्रक्चर तय करते हैं कि कौन सहज बोल सकता है और कौन नहीं।
तीसरी चुनौती – समूह राजनीति और मौन की कीमत -:
धीरे-धीरे समूह में गुटबाज़ी और राजनीति उभरने लगी। जो “safe space” की बात हो रही थी, वहाँ अब हर शब्द किसी न किसी अर्थ में तोला जाने लगा। मैंने बोलना कम कर दिया, क्योंकि अब चुप रहना ही कई बार ज़्यादा सुरक्षित लगा।
पर उसी चुप्पी में मैंने एक नई सीख पाई — फेमिनिस्ट लीडरशिप केवल बोलने में नहीं, सुनने में भी है।
चौथी चुनौती – डर का सामना -:
एक दिन जंगल के रास्ते में अचानक मेरे सामने एक बड़ा साँप निकल आया। मैं ठिठक गई — शरीर जैसे जम गया हो। साथी के सहयोग से मैं सुरक्षित लौटी, लेकिन उस रात नींद नहीं आई। उस अनुभव ने सिखाया कि नेतृत्व और डर साथ-साथ चलते हैं — फर्क बस इतना है कि डर को पहचानकर भी आगे बढ़ने की हिम्मत करनी पड़ती है।
सहयोग की शक्ति – जब नारीवाद सिर्फ विचार नहीं, सहारा बना
इन सब चुनौतियों के बीच कुछ ऐसे साथी भी थे जिन्होंने संवेदनशीलता और एकजुटता दिखाई। जब मैं अपनी मास्टर्स की फीस भरने में असमर्थ थी, तब प्रणव, निखिल ने मुझे crowdfunding का सुझाव दिया और सहयोग किया।
उस पल मैंने महसूस किया कि फेमिनिज़्म केवल विचार नहीं, बल्कि रिश्तों में ज़िंदा रहने वाली भावना है। उनके इस सहारे ने मुझे याद दिलाया कि एक सच्चा नारीवादी स्पेस वही होता है, जहाँ हम एक-दूसरे को प्रतिस्पर्धा में नहीं, सहारे में देखते हैं।
सीखें – सीखना, भूलना और फिर से सीखना -:
- सीखना (Learning): विविधता को अपनाना ही सच्चा नेतृत्व है।
- भूलना (Unlearning): यह भ्रम कि केवल अंग्रेज़ी या अनुभव से नेतृत्व तय होता है।
- फिर से सीखना (Relearning): संवाद, संवेदना और सुलभता ही किसी भी समुदाय की नींव हैं।
गाँवों में लौटना: नारीवाद को जड़ों तक पहुँचाना
अब जब मैं ग्रामीण क्षेत्रों में काम करती हूँ, तो देखती हूँ कि वहाँ की महिलाएँ अब भी सीमित जगहों में बंधी हैं — न शिक्षा है, न आत्मविश्वास, और निर्णय लेने की शक्ति तो जैसे किसी और के पास है।
उनकी आवाज़ें अब भी रसोई और खेत तक सीमित हैं।
इसलिए मैं कोशिश करती हूँ कि उनके लिए वही safe और inclusive space बना सकूँ जिसकी तलाश मैंने FLL में की थी। मैं चाहती हूँ कि वे अपने अनुभव साझा करें, सीखें और खुद को सिर्फ़ “घर की औरत” नहीं, बल्कि “निर्णय लेने वाली नारी” के रूप में देखें।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो महसूस करती हूँ कि FLL ने मुझे यह सिखाया कि नारीवाद का असली अर्थ केवल बराबरी की मांग नहीं, बल्कि बराबरी का वातावरण बनाना है।
मेरे लिए यह यात्रा “पहचान पाने” की नहीं, बल्कि “दूसरों को आवाज़ देने” की रही है।
अब मैं जानती हूँ —
“फेमिनिज़्म मेरे लिए सिर्फ़ विचार नहीं, बल्कि वह बीज है जिससे मैंने एक पेड़ उगाया है — जिसकी छाँव अब कई औरतों तक पहुँच रही है|”
“यह सफ़र खत्म नहीं हुआ है,
यहाँ से चले हैं — अभी तो ज़िन्दगी का पूरा सार बाकी है,
यह एक पन्ना था — अभी तो पूरी किताब बाकी है।”
मेरे लिए यह कोहर्ट केवल एक प्रोग्राम नहीं था, बल्कि सीखने, सहने और फिर से खड़े होने का अनुभव था।
यह सफर मुझे यह सिखा गया कि परिवर्तन की शुरुआत हमेशा भीतर से होती है — और मैंने वह शुरुआत कर दी है।


