मेरा नाम रोशनी है। मैं रामानंदी साधु परिवार में पैदा हुई, जो कि एक चलित (nomadic) समुदाय है। यानी मेरे दादा-परदादा स्थाई रूप से कहीं नहीं ठहरते थे। मेरे दादा, परदादा, पापा और चाचा सब हमारे विस्तारित परिवार के साथ छोटी-मोटी पूजा–पाठ और दान-दक्षिणा पर गुजारा करते थे। लेकिन मेरे बापू (पापा के पापा) ने पढ़ाई का महत्व समझा। उन्होंने खुद पढ़ाई की और मेरे पापा व चाचा को भी पढ़ाया ताकि वे पढ़-लिखकर अपने दम पर कुछ कर सकें। पढ़ाई के बाद मेरे पापा और चाचा ने पूजा–पाठ और दान-दक्षिणा का काम छोड़ दिया। मेरे पापा में भी मेरे बापू जैसे विचार थे।
मैं परिवार की पहली संतान हूं। मुझे मेरे पापा ने पढ़ाया — यह उस समय बहुत बड़ी बात थी क्योंकि हमारे समाज में लड़कियों को ज्यादातर पढ़ाया नहीं जाता था और कम उम्र में उनकी शादी कर दी जाती थी।
नारीवाद से परिचय
नारीवाद क्या होता है, इसका मुझे व्याख्यात्मक रूप से परिचय कभी नहीं मिला। पर शायद मेरे जीवन के कुछ अनुभव और घटनाएँ नारीवाद से जुड़ी थीं। अगर किसी कमजोर के साथ खड़ा रहना, शोषित के लिए आवाज उठाना, खुद पर हो रही हिंसा (चाहे परिवार में, स्कूल में, या व्यक्तिगत रिश्तों में) के खिलाफ बोलना नारीवाद है… तो हाँ, जब से मैं सामाजिक भेदभाव और शोषण के रूबरू हुई हूँ, तब से मैं नारीवादी हूँ।
आंदोलन और चुनौतियाँ
मैं गुजरात के पंचमहाल ज़िले, शहेरा ब्लॉक के एक गाँव से हूँ। जिन सामाजिक मुद्दों को हमने आंदोलन में उठाया, वही मुद्दे हमारे व्यक्तिगत जीवन का भी हिस्सा रहे हैं। इसलिए हम इस आंदोलन में गहरे जोश के साथ जुड़ पाए।
पिछले 15 सालों से मैं आनंदी संस्था के साथ जुड़ी हूँ। संस्था में हमने अपने ही सामाजिक सवालों को एक सामूहिक आवाज़ मिलते देखा और तब से हम संस्थागत आंदोलन का हिस्सा बने हैं। मेरे अनुभव में, ज्यादातर हिंसा और शोषण की जड़ पितृसत्तात्मक मानसिकता है, जिसे समाज और धर्म ने गहराई से फैलाया है।
मेरे अनुभव में आंदोलन हमेशा 15 या 50 लोगों से शुरू नहीं होता। कभी–कभी हिंसा का सामना करने वाली एक महिला जब अपने शोषण के खिलाफ खड़ी होती है, तो वही दूसरों के लिए चिंगारी का काम करती है। ऐसी महिलाएँ अपने साहस से पूरे समुदाय में सामूहिक ताकत को जन्म देती हैं।
युवा लड़कियाँ और संगठन
हमारे क्षेत्र की युवा लड़कियों के अपने मुद्दे हैं: शिक्षा, रोजगार और परिवार के भीतर निर्णय–अधिकार। पर वे पहले से ही वंचित हैं। यदि किसी लड़की के साथ हिंसा होती है या वह अपनी मर्ज़ी से कोई निर्णय लेती है, तो उसका असर पूरे समूह की लड़कियों पर पड़ता है। शादी हो जाने के बाद भी लड़कियाँ समूह से छूट जाती हैं। ऐसे में उनका संगठन लगातार चलाना हमारे लिए बड़ी चुनौती है।
आजकल युवा सम्मेलनों में ट्रॉमा ट्रिगर वार्निंग जैसी शब्दावली का उपयोग होता है। पर हमारे इलाके में, जहाँ लड़कियाँ इतनी भयंकर सामाजिक शोषण और हिंसा झेल रही हैं, वहाँ “ट्रॉमा” और “ट्रिगर” के मायने ही अलग हैं। यहाँ लड़कियाँ अपनी पसंद से शादी नहीं कर सकतीं। अगर करती हैं, तो कभी–कभी उन्हें मारकर पेड़ से लटका दिया जाता है, या जबरन वापस लाकर सार्वजनिक रूप से “बेचा” जाता है। माना जाता था कि आदिवासी और पिछड़े समुदाय अधिक खुले होते हैं, पर हाल ही के वर्षों में उनमें भी पितृसत्तात्मक संस्कृतिकरण गहराता गया है।
ऐसे मामलों में जब हम परिवारों से बात करने जाते हैं, तो पुरुषों के साथ–साथ महिलाएँ भी शोषणकारी दृष्टिकोण अपनाती हैं, क्योंकि वे उस समय माँ, चाची या दादी की भूमिका में सोचती हैं।
आगे का रास्ता
मेरा मानना है कि हमें 12 साल की उम्र से ही किशोर–किशोरियों के साथ गाँव और स्कूल स्तर पर काम करना चाहिए, ताकि वे न्यायपूर्ण समाज रचना में अपनी भूमिका समझें। युवा लड़कियों को शिक्षा और आजीविका में सक्षम बनाना बेहद जरूरी है।
हमारे काम में हमने देखा कि जिन लड़कियों ने फेलोशिप या प्रशिक्षण लिए हैं, वे अब अपने जीवन के कई निर्णय समझदारी से ले पा रही हैं और जोखिम कम कर रही हैं। जो लड़कियाँ कॉलेज तक पढ़ पाईं या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुईं, वे अपने परिवार में कहीं न कहीं प्रभाव बना पा रही हैं। इससे साफ है कि शिक्षा और रोजगार, सशक्तिकरण की मूलभूत नींव हैं।
इसलिए ज़रूरी है कि युवाओं के अपने मंच हों, उन्हें वैश्विक नेटवर्क से जोड़ा जाए और स्थानीय स्तर पर अवसर दिए जाएँ। युवा आंदोलन और नेटवर्किंग के लिए संसाधनों में भी वृद्धि होनी चाहिए। यह सामाजिक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर सुनिश्चित करना होगा।


